आज बेंगलुरु में विपक्ष के 26 दल 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर संयुक्त रूप से मंथन कर रहे हैं। जब मंथन होता है तो उससे कुछ न कुछ तो निकलेगा ही फिर वह हलाहल हो या अमृत। मंथन कभी व्यर्थ जाता ही नहीं है। विपक्ष एकजुटता की बात कर रहा है, भाजपा के सामने संयुक्त रूप से लडऩे की योजना बना रहा है, यहां तक तो सब ठीक है। मगर मन में प्रश्न तक खड़ा हो जाता है जब भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ बैठक करती है और शोर मचाया जाता है कि विपक्षी तो केवल 26 हैं हम तो 38 हैं। एक तरफ भाजपा कहती है कि पूरा विपक्ष भी मिलकर प्रधानमंत्री मोदी का मुकाबला नहीं कर सकता। दूसरी तरफ 38 दलों के गठबंधन का इतना प्रचार। यदि आपकी जीत सुनिश्चित है, आपके पास नेता भी है और नियत भी, आप यह भी मान रहे हैं कि आपके मुकाबले में कोई है नहीं तो फिर 38 दलों को अपने मंच पर दिखाकर आप साबित क्या करना चाहते हैं। यही कि आपको विपक्षी दलों की एकजुटता से डर लगता है? संसद में 545 सीटें हैं जिनमें नौ ऐसे दल हैं जिनके पास दस से कम सांसद हैं। ऐसे में दोनों ही गठबंधनों के पास ऐसे दल है कि जिनका सदन में प्रतिनिधित्व नहीं है। बस नंबर गेम चल रहा है। अब नंबर गेम विपक्ष चले तो समझ आता है। मगर भाजपा को इस गेम में फंसने का जरूरत क्यों आ पड़ी। क्या इसे भाजपा की घबराहट ही माना जाए कि उसको यह तक कहना पड़ रहा है कि पंजाब में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पचा ही नहीं पाएंगी। अब यह केवल 26 बनाम 38 की लड़ाई नहीं रह गई है। अब मामला जनता को यह बताने का गया है कि किसके साथ कितने दल खड़े हैं। कभी मनमोहन सरकार के गठबंधन को भानुमति का कुनबा बताने वाली भाजपा आज हर प्रदेश छोटे बड़े दल के साथ गठबंधन करने को क्यों मजबूर है। जबकि आंकडे बताते हैं कि किसी गठबंधन के बिना ही उसके पास पूर्ण बहुमत है। फिर ऐसे में नए नए साथी क्यों तलाशे जा रहे हैं। लगता है कि पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में मिली हार से भाजपा कुछ विचलित है। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर उसका विश्वास कुछ डगमगा गया है। इसीलिए विपक्ष के गठबंधन को एनडीए के गठबंधन से जवाब देने की तैयारी की जा रही है। वैसे भी भाजपा को तो चुनाव लडऩा ही दस वर्ष की उपलब्धि, सेवा, सुशासन और नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर ही है। ऐसे में विपक्ष की नीति पर चलकर क्या भाजपा अपनी ही रणनीति पर प्रश्न उठाने का प्रयास कर रही है?