महाभारत जैसा धारावाहिक, दर्जनों हिट फिल्मों और अनेक कालजई उपन्यासों के सुप्रसिद्ध लेखक राही मासूम रज़ा ने एक बार कहा था ‘नई पीढ़ी हमसे अधिक घाटे में है। हमारे पास ख्वाब नहीं थे और आज की पीढ़ी के पास झूठे ख्वाब हैं।’ रज़ा साहब खांटी के कम्युनिस्ट थे और जीवन भर उन्होंने साम्यवाद की लड़ाई लड़ी मगर फिर भी न जाने क्यों उन्होंने यह कह दिया कि हमारे पास ख्वाब ही नहीं थे? रज़ा साहब से सहमत अथवा असहमत होने की तमाम दलीलें दी जा सकती हैं मगर मेरे खयाल से रज़ा साहब के पास ख्वाब तो जरूर थे मगर यह बात और है कि वे टूटे फूटे थे अथवा वक्त की ठोकरों से टूट गए । मगर यकीनन आज जो ख्वाब देखे अथवा दिखाए जा रहे हैं वे अवश्य ही झूठे हैं। अपने मुल्क का स्वभाव थोड़ा लिहाज़ी है। शोर शराबे और धूम धड़ाके से कही गई कोई भी बात उसे ठीक ही जान पड़ती है। उसके ख्वाबों के दायरे में भी यही सब कुछ होता है। किसी ने ख्वाब थमाया कि साम्यवाद आयेगा तो उसके साथ हो लिए । किसी ने कहानी सुनाई कि साम्यवाद नहीं समाजवादी व्यवस्था से ही देश का भला होगा तो उसके पीछे चल दिए। आजकल बाज़ार में ख्वाबों के नए सौदागरों की धूम है। खयाली प्रोडक्ट हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत और न जाने किस ख्वाब की फॉरवर्ड ट्रेडिंग धड़ल्ले से हो रही है। कोई नहीं पूछ रहा कि खबाव कैसे साकार होगा अथवा हो भी सकेगा या नहीं? जो बेच रहे हैं, भला वे ऐसी बातों के जवाब अपने आप क्यों देंगे? भारत का संविधान बनाने वाले हमारे नायकों ने शायद आने वाले खतरों को सूंघ लिया था और पहले दिन से ही प्रावधान कर दिया था कि संविधान में मामूली परिवर्तन तो हो सकते हैं मगर उसके मूल सिद्धांतों में आमूलचूल बदलाव नहीं हो सकता। संविधान का ढांचा ही ऐसा है कि सत्ता में वाम पंथी हों अथवा दक्षिण पंथी या फिर कोई और, भारत की धर्मनिर्पेक्षता अक्षुण्य ही रहेगी। हिंदू राष्ट्र का सपना दिलाने वाले भी यह सच जानते हैं और यही कारण है कि सीधे सीधे नहीं वरन चोर दरवाजे से अपने सपने को सच होता दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। स्कूली किताबों के सिलेबस में परिवर्तन, इमारतों और सडक़ों के अपने अनुरूप नामकरण, नेताओं ही नहीं भक्तों पर भी फूल वर्षा, भव्य मंदिरों के निर्माण और गुजरात की तर्ज पर मणिपुर के ट्रीटमेंट जैसा हर टोटका अपनाया जा रहा ताकि चुनावी बयार में इसकी तिज़ारत की जा सके। झूठे ख्वाबों के सौदागरों ने आज तक नहीं बताया कि जिस अखंड भारत के नक्शे को दिखा कर करोड़ों लोगों को पिछले सौ सालों से भरमाया जा रहा है, ऐसा अखंड भारत इतिहास के किस काल खंड में इस धरा पर था? बेशक इन इलाकों तक कोई न कोई भारतीय राजा एक छोटे से अंतराल के लिए अपनी पताका फहराने के कामयाब रहा मगर उसके राज्य की सीमाओं में तब अन्य कौन कौन से क्षेत्र नहीं थे? यकीनन मौर्य, चोल, मुगल और बाद में अंग्रेजों ने भारत की सीमाओं का विस्तार अफगानिस्तान, भूटान, म्यामार, तिब्बत, श्रीलंका, नेपाल और आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश तक किया मगर आज क्या यह संभव है? भारत के बीस करोड़ मुस्लिमों से ही तंग आज के हमारे रहनुमा यदि अपने नक्शे के अनुरूप अखंड भारत बना भी लेते हैं तब क्या अस्सी करोड़ मुस्लिमों के साथ वे रह लेंगे? चीन जो आए दिन हमारी सीमाओं में घुसपैठ करता है और हम उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते, क्या उससे हम तिब्बत छीन सकते हैं? आखिर आधा दर्जन से अधिक बड़े देशों को अपनी सीमाओं में मिलाने का हमारे पास रोड मैप क्या है? क्या आज की दुनिया में किसी भी देश के लिए किसी अन्य देश को हड़प लेना संभव है? रशिया और यूक्रेन का उदाहरण भी किसी को नहीं दिख रहा? फिर क्यों ऐसे ऐसे झूठे ख्वाब दिखाए जाते हैं, जो साकार होना तो दूर कल्पनाओं में भी डराते हैं? शुक्र है कि बूढ़ी हो चली हमारी पीढ़ी इन झासों से बच निकली मगर आज की पीढ़ी का क्या होगा? रज़ा साहब आप ठीक ही कहते थे, झूठे ख्वाबों पर पल रही आज की पीढ़ी हमारे मुकाबले अधिक घाटे में है।