कायदे से तो इस महिला का नाम ही सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए था ज्योति मोर्या अब केवल नाम भर भी कहां रह गया है। ‘बेटी पढ़ाओ-पत्नी नहीं ‘ का नारा बुलंद करने वाली पुरूष सत्तात्मक शक्तियां छाती पीट रही हैं और दावा कर रही हैं कि सफाई कर्मी आलोक ने मेहनत मशक्कत कर अपनी बीवी ज्योति को पढ़ाया लिखाया और अब बड़ी अधिकारी बनने के बाद वह एक अन्य पीसीएस अधिकारी से पींघें बढ़ा रही है और तलाक के लिए उस पर दबाव डाल रही है। हालांकि यह पति पत्नी का निजी मामला था और इसकी सार्वजनिक रूप से चर्चा भी नहीं की जानी चाहिए थी मगर जब ऐसी खबरें सामने आने लगी हों कि इस मामले की आड़ लेकर लोग बाग अपनी बीवियों की पढ़ाई लिखाई छुड़वा रहे हैं तो जाहिर है कि इस पर विमर्श होगा ही। समाचारों की दुनिया का मूल मंत्र है कि कुत्ता यदि आदमी को काट ले तो यह ख़बर नहीं है। मगर आदमी किसी कुत्ते को काट ले तो बेशक तूफानी खबर बनती है। ज्योति मोर्या का मामला भी कुछ ऐसा नहीं है क्या? पत्नी द्वारा पति को छोडऩे पर उस मुल्क में बवाल हो रहा है जहां तमाम कथानकों के भगवान मार्का लोग अपनी निर्दोष पत्नियों को छोडऩे के बावजूद भगवान के अपने ओहदे से पदावनित नहीं किए गए? नाम लिखने की भला क्या आवश्यकता है जब हमारा हर दूसरा भगवान बीवी छोड़ अथवा बहु पत्नी वाला है। कथानकों से इतर आधुनिक काल भी भला ऐसे पुरूषों से कहां रिक्त है जिन्होंने सफलता के लिए अथवा सफल होने के बाद अपनी पत्नी को छोड़ दिया। फिल्मी दुनिया ही नहीं राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और मीडिया जगत के अनगिनत ऐसे लोगों को हम आप जानते हैं। फिर सारा नजला अपने पति को छोडऩा चाह रही एक स्त्री पर ही क्यों? हो सकता है कि आलोक के आरोप सही हों मगर इससे उसका यह अधिकार कैसे सिद्ध हो जाता है कि अब उसकी पत्नी को सारी उम्र उसके पल्लू से बंधा रहना चाहिए? पत्नी को पीसीएस अधिकारी बनवाने में ‘पढऩे की अनुमति देने’ के अतिरिक्त उसकी भला अन्य भूमिका क्या रही होगी? इस अनुमति के बदले में क्या पत्नी की तमाम उम्र की कमाई चाहिए उसे अब? हो सकता है कि ज्योति के किसी अन्य पुरूष से रिश्ते हों मगर यह अपराध तो नहीं है। पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय डेढ़ सौ साल पहले के इस दकियानूसी कानून को समाप्त कर चुका है और उसने स्पष्ट कर दिया है कि यदि किसी अन्य से रिलेशन में हैं तो औरतें भी स्वतंत्र निर्णय ले सकती हैं। साथ ही किसी की भी शादीशुदा जिंदगी यदि खराब चल रही है तो वह तलाक ले सकता है। ऐसे में भला ज्योति की तलाक की अर्जी पर बवाल क्यों? मामला अब अदालत में है और सभी को न्याय की उम्मीद की जानी चाहिए मगर प्रदेश सरकार को क्या सूझी जो उसने निजी मामला होने के बावजूद दोनो पीसीएस अधिकारियों पर तबादले की गाज गिरा दी और इनसे जवाब तलब कर लिया? क्या सरकार भी पुरूष सत्तात्मक मानसिकता की शिकार है? पिछली आधी सदी में स्त्री सशक्तिकरण पर बहुत काम हुआ है और उसी का नतीजा है कि हर वह कार्य जिस पर पुरूषों का विशेषाधिकार था स्त्रियां भी कर रही हैं। कम पढ़े लिखे और विकास में पीछे छूटे परिवारों में भी स्त्रियों को आगे बढ़ाने की सकारात्मक प्रवृत्ति देखी जा रही है। जाहिर है कि इससे आने वाले वक्त में ज्योति मोर्या जैसे अन्य मामले भी सामने आएंगे। क्या ही अच्छा हो कि इसके प्रतिउत्तर में ज्योतियों का रास्ता काटने के बजाय हमारा पुरूष वर्ग खुद पर काम कर अपने को उनके लायक बनाए। लायक पत्नी की चाह नालायक पति करें यह भी उचित नहीं?