यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी यूसीसी में क्या होगा अथवा क्या नहीं यह तो अभी किसी को नहीं मालूम मगर यह सबको पता है कि देश की 14.23 फीसदी मुस्लिम आबादी की चूडिय़ां कसने के इरादे से यह कानून बनाया जाना है। अब जिनकी एक भी बीवी न हो अथवा जिन्होंने होने के बावजूद उसे छोड़ रखा हो, वे भला कैसे बर्दाश्त कर लें कि हमेशा से उनकी आंख की किरकिरी रहे मुस्लिम चार चार रख सकते हैं। कोई माने अथवा नहीं मगर इस कानून की कवायद की असली वजह यही है। तलाक, भरण पोषण, विरासत और बच्चा गोद लेने जैसी बातें तो मुलम्मा भर हैं। हालांकि इस कानून की जुगत कर रहे लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि बहुविवाह के मामले में हिन्दू भी कुछ कम नहीं हैं। मुस्लिम आबादी के 1.9 फीसदी लोग एक से अधिक शादी करते हैं तो हिन्दू समेत बाकी आबादी में भी यह आंकड़ा 1.6 फीसदी का है। मगर चार बीवी-चार बीवी का इतना हल्ला जिन्होंने खुद ही मचाया हो वो भला कैसे अब जनता को सच बता दें। काश इश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे और मुस्लिमों का राग अलापने की बजाय वे पहले अपने उन सामंती सोच वाले लोगों की चूडिय़ां कसें जो मजलूम आदिवासियों के सिर पर न केवल पेशाब कर रहे हैं, अपितु उसका वीडियो बनाकर प्रसारित भी कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में एक आदिवासी के सिर पर सवर्ण जाति के भाजपाई द्वारा मूत्र विसर्जन का वीडियो किसी भी सभ्य समाज के चेहरे पर कलंक से कम नहीं है। आजादी के 75 साल बाद भी यदि हम लोग उसी सामंती मानसिकता से घिरे हुए हैं तो यह आजादी भी झूठी ही मानी जायेगी। अजब विडंबना है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को हमेशा मुस्लिम ही दिखते हैं और आदिवासियों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता जबकि देश में उनकी आबादी भी 8.6 फीसदी है। मुल्क में सर्वधिक ज्यादतियां भी इन्हीं के साथ होती हैं और संविधान की रौशनी से वे आज भी महरूम हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का ही आंकड़ा है कि इनके साथ हुए अत्याचार के मामलों में सबसे कम यानी मात्र दो फीसदी में ही न्याय हो पाता है। हैरत है कि कुछ सवर्ण बिरादरियों में जातीय दंभ इस कदर है कि वे आदमी के ओहदे अथवा सामाजिक कद की भी परवाह नहीं करते और केवल उसकी जाति देखते हैं। पांच साल पहले तत्कालीन दलित राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद का परिवार समेत राजस्थान के एक मंदिर की सीढिय़ों पर बैठ कर पूजा करना और अब आदिवासी समाज से आईं राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू का जगन्नाथ मंदिर में गर्भ गृह के बाहर से दर्शन करना अनेक सवाल खड़े करता है। मुल्क में आज भी ऐसे मंदिर और पूजा स्थल बहुतायत में हैं जहां दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को जाने की इजाज़त नहीं है। हो सकता है कि देश में सभी धर्मो के लिए एक जैसे सामाजिक नियम कानून जरूरी हों मगर यकीनन इससे भी अधिक जरूरी हैं कि प्रत्येक नागरिक को बराबरी का अधिकार मिले। मजलूमों का मूत्राभिषेक करने की प्रवृत्ति पर पूरी तरह से नकेल कसे बिना ऐसे सौ यूसीसी भी बना दिए जाएं मगर वे बेमानी ही साबित होंगे।