साल 1958 में मशहूर अंग्रेजी लेखक आरके नारायण का उपन्यास छपा- द गाइड। इस उपन्यास ने दुनिया भर में धूम मचा दी। बाद में देवानंद ने जब इस उपन्यास पर आधरित फिल्म गाइड बनाई तो उसने भी तमाम पुरस्कार जीते। फिल्म दिखाती है कि धोखाधड़ी के मामले में जेल की सजा काट कर बाहर आया राजू नाम का एक गाइड कैसे संत बन जाता है और लाखों लोग उसके अनुयाई हो जाते हैं। हालांकि राजू संत नहीं था मगर अपनी-अपनी समस्याओं से घिरे लोगों की आस्था उसे इस मुकाम पर ले आती है। यह उपन्यास जिस दौर में लिखा गया तब तक आजादी को अधिक समय नहीं हुआ था और देश में अशिक्षा और गरीबी अपने चरम पर थी। मगर आज तो देश कमोवेश शिक्षित और आर्थिक रूप से पैरों पर खड़ा है मगर दुर्भाग्य देखिए कि आस्था की अंधी गलियों में हम साल 1958 से भी कई कदम आगे बढ़ गए हैं। आज जहां देखो राजू गाइड दिख रहे हैं और दिख रहा है इसके पीछे लाखों लाख मूर्ख भक्तों का सैलाब। वह राजू तो अपने आंसुओं से पवित्र हो गया था मगर ये राजू तो हमें ही ठग रहे हैं। क्या विज्ञान की तमाम सफलताओं के बावजूद हम इन 65 सालों में और अधिक दकियानूसी हो गए हैं?
एक चने बेचने वाला गरीब आदमी रातों रात कथा वाचक प्रदीप मिश्रा बन जाता है और फिर अभिमंत्रित रुद्राक्ष बांटने के नाम पर लाखों लोगों को मध्य प्रदेश के अपने कुबेरेश्वर धाम में बुला लेता है। अव्यवस्था और भीड़ में न जाने कितने लोग मर जाते हैं मगर इस देश में पत्ता भी नहीं खडक़ता। उधर, बागेश्वर धाम के नाम पर धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री नाम का एक व्यक्ति लाखों करोड़ों को मूर्ख बना रहा है और उसे कहीं से चुनौती नहीं मिलती। हैरानी की बात यह है कि इस दोनों राजू गाइडों के अनुयाई पढ़े-लिखे और संपन्न लोग बताए जाते हैं। उधर, एक और आधुनिक बाबा है सद्गुरु जग्गी वासुदेव जो खुद भी अच्छा खासा पढ़ा लिखा है और तमाम बड़े लोगों का गुरू है। वह भी आजकल मुफ्त रुद्राक्ष बांट रहा है। शिवरात्रि पर होने वाले उसके कार्यक्रम के इतने विज्ञापन अखबारों में छपे कि बड़े-बड़े फोटू प्रेमी नेता भी शरमा गए। उसके कार्यक्रम में प्रधानमंत्री हो आए हैं और इस बार राष्ट्रपति गईं थीं। इन बाबाओं से कोई नहीं पूछ रहा कि उनके पास इतने रुद्राक्ष आए कहां से? भारत में तो ये प्राकृतिक रूप से न के बराबर पैदा होते हैं, फिर कहां से मिले? बेशक पड़ोसी देश नेपाल, इंडोनेशिया और मलेशिया में इनकी पैदावार होती है मगर वहां से इतने रुद्राक्ष के आयात होने की भी कोई जानकारी नहीं मिलती। तो क्या ये सब रुद्राक्ष नकली हैं? एक जानकारी के अनुसार भारत में यूं भी 95 फीसदी लकड़ी और प्लास्टिक से बने रुद्राक्ष ही बिकते हैं। पता नहीं कोई रुद्राक्ष अभिमंत्रित होता भी होगा अथवा नहीं मगर प्लास्टिक के रुद्राक्ष कैसे अभिमंत्रित होते होंगे?
कैसी विडंबना है कि लोग मानना ही नहीं चाहते कि जीवन अनिश्चय से भरा हुआ ही होता है और सुख व दु:ख दोनों का सामना करना ही पड़ता है। रोग है तो अस्पताल समाधान है कोई ढोंगी नहीं। बेशक डॉक्टरी इलाज महंगा, तकलीफदेह और लंबी प्रक्रिया वाला होता है मगर इसका कोई शॉर्टकट भी तो नहीं है। तमाम अन्य समस्याओं के समाधान भी केवल विज्ञान, समाज और व्यवस्था के सहयोग से ढूंढे जा सकते हैं। हो सकता है कि इसमें सफलता न मिले मगर किसी ढोंगी से तो समाधान न मिलने की ही पूरी गारंटी है। वैसे कभी-कभी तो लगता है कि हमारे सत्ता प्रतिष्ठान चाहते ही नहीं कि देश के लोग इस सच को जानें। झूठ की यह दुनिया उसे पूरी तरह अपने मुफीद जान पड़ती है और वह जानबूझ कर खुद ही समाज में राजू गाइड पैदा करते हैं।