चाय की चुस्कियों के बीच चर्चा चल रही थी। गाजियाबाद की हवा ही कुछ ऐसी है कि चर्चा किसी भी वर्ग के बीच किसी भी विषय पर चल रही हो आकर ठहरती राजनीति पर ही है। राजनीति भी कमबख्त वह चीज है कि इस पर हर आदमी अपने आप में श्रेष्ठ है और दूसरा कमतर। खैर चर्चा चली तो बात आई कि शहर विधायक अतुल गर्ग की उस बात पर ठहर गई कि इतने बुरे दिन भी नहीं आए कि दिवाली मिलन के लिए फोन करके लोगों को बुलाया जाए। इस पर एक व्यक्ति ने कहा कि पहले तो यह समझ लीजिए कि जिसके घर के दरवाजे बंद रहते हों, जहां कार्यकर्ताओं को झिडक दिया जाता हो वहां भला कौन जाना चाहेगा। कहा गया कि कितने कार्यकर्ता आपके बुलावे पर आते इससे कोई अंजान नहीं है। बड़े लोगों से आपका व्यवहार अलग रहता है और छोटे कार्यकर्ताओं के साथ अलग। दूसरी बात जिस परिपेक्ष में यह बात कही गई है तो उसका अर्थ भी समझ लेना चाहिए था। लगभग सभी बड़े नेता होली दिवाली जैसे त्यौहार पर अपने आवास पर मिलने के लिए दिन और समय निश्चित कर लेते हैं। उसके पीछे किसी को बुलाने की मंशा नहीं होती। बल्कि कार्यकर्ता का सम्मान और उसकी सहुलियत होती है। बड़े नेता अधिक व्यस्त रहते हैं ऐसे में कार्यकर्ता उनके आवास पर पहुंचता है और नेता के ना मिलने पर उसे परेशानी उठानी पड़ती है। कार्यकर्ताओं की इसी परेशानी को दूर करने के लिए नेता एक दिन और समय निश्चित कर देते हैं। जिससे कि सभी लोग आराम से, सहुलियत से, बिना किसी विघ्न के मुलाकात कर सकें। यह पूरा का पूरा कार्यकर्ता का मामला है। एक और बात जो इस चर्चा के दौरान समझ में आई कि गाजियाबाद के कुछ नेता ऐसे हैं जो अन्य जनप्रतिनिधि के यहां या जिस कार्यक्रम में वह हैं उसमें जाना तक पसंद नहीं करते। मगर उनके यहां हो क्या रहा है इस पर उनकी पूरी नजर रहती है। कौन क्या कार्यक्रम कर रहा है उसकी पूरी जानकारी रखते हैं। यह तो वही बात हुई कि-
यहां जलने वाले भी कमाल का हुनर रखते हैं,
देखना भी नहीं चाहते, फिर भी नजर रखते हैं।