उसका लडक़े का नाम तो मैं नहीं जानता मगर एक रात कुछ जरूरी सामान मंगवाया तो वह डिलीवरी ब्वॉय देने घर आया था। आमतौर पर डिलीवरी ब्वॉय मोटर साईकिल से आते हैं मगर वह पैदल ही आया था। कारण पूछा तो वह बोला कि मोटर साईकिल अभी-अभी खराब हुई है और यह आखिरी डिलीवरी थी इसलिए पैदल ही आ गया। उसकी बातों से साफ दिख रहा था कि वह झूठ बोल रहा है। उसमे अच्छी रेटिंग देने की जब गुहार की तो इसी बहाने कुछ और बातचीत हुई। पता चला कि उसके पास तो मोटर साईकिल है ही नहीं। वह लडक़ा पास के एक स्कूल में पढ़ता है और अपनी फीस के पैसों की खातिर यह काम करता है। अपनी कमर पर बैग टांगे मोटर साईकिल, साईकिल अथवा पैदल जा रहे सैंकड़ों लडक़े आपने देखे होंगे। उनमें से किसी भी लडक़े की शक्ल याद कर लीजिए, वह लडक़ा ठीक वैसा ही था।
होम डिलीवरी का धंधा बेशक एक दशक पुराना है मगर कोरोना काल में लगे लॉकडाउन के बाद यह कई गुना बढ़ गया है। खाने पीने का सामान, किराना अथवा दवाई ही नहीं जरूरत की हर चीज अब एप के माध्यम से घर पर मंगवाई जा सकती है। शुरू-शुरू में जोमैटो और स्वीगी जैसी इक्का-दुक्का कंपनिया ही थीं जो यह सुविधा देती थीं मगर अब तो ब्लिंकिट, डंजो और जैप्टो जैसे एक दर्जन अन्य बड़े खिलाड़ी भी मैदान में आ गए हैं। इन कंपनियों के लिए हजारों लडक़े काम करते हैं और कच्चा पक्का जैसा भी कहें मगर फिर भी इनसे रोजगार तो सृजित हो ही रहा है। लगभग बीस से तीस साल की उम्र के ये लडक़े हर शहर हर गली में आजकल आपको घूमते दिख जायेंगे। हालांकि इस नए रोजगार का सारा श्रेय सॉफ्टवेयर कंपनियों और उनके तकनीकि विकास को ही जायेगा मगर फिर भी सरकार चाहे तो इसे अपने खाते में दर्ज कर सकती है।
पैदल डिलीवरी कर रहे लडक़े को देखने के बाद जब उसके काम को नजदीक से जानने की कोशिश की तो पता चला कि दो किलोमीटर की दूरी तक सामान पहुंचाने के इन लडक़ों को 25 रूपए मिलते हैं। लगातर दस घंटे काम करें तब भी शाम तक 25 से 30 डिलीवरी ही हो पाती हैं। यानि महीने में पेट्रोल का खर्च काटकर मात्र दस से पंद्रह हज़ार ही बचते हैं। हालांकि बेरोजगारी के इस माहौल में यह रकम भी संतोष जनक है। उस दौर में जब सरकार पकौड़े बेचने को भी मजबूरी नहीं रोजग़ार मानती हो तब इस काम को भला रोजगार कैसे न माना जाए? बेशक संगठित क्षेत्र की तरह ईएसआई, बोनस और पीएफ जैसी सुविधा इसमें नहीं है मगर फिर भी यह रोजग़ार तो है ही। वैसे क्या ही अच्छा हो कि सरकार इन लडक़ों का इंश्योरेंस करवाना कंपनियों के लिए लाज़मी कर दे। क्या है कि सारा दिन सडक़ पर रहने और जल्दी से जल्दी सामान पहुंचाने के प्रेशर में इनके दुर्घटनाग्रस्त होने की आशंका कुछ ज्यादा ही रहती है। सामान पहुंचाने के बाद डिलीवरी ब्वॉय को पैसे न देने, अकारण सामान लेने से इनकार करने और बिलावजह अपमानित करने वालों से बचाव को कुछ मौलिक अधिकार भी यदि इन लडक़ों को दे दिए जाएं तो क्या ही अच्छा हो। अब श्रेय लेने को कुछ तो करना ही पड़ेगा सरकार जी।